Analysis of चरित्र दर्पण
बैठी आज किनारे पर,कुछ तो सोच रही
मान रही की अब तो हार गई
क्या वाकई खुदसे?
मांगा मैंने था जवाब,पलटकर आए कई सवाल
लोगो से जुड़े नही
अपितु,खुद की महत्वाकांक्षा पर कई सवाल
एक,दो अथवा सौ नही
अनगिनत,
आखिर ये उथल-पुथल रोज की तो नही
ये अव्यवस्थित तभी क्यों होते हैं , जब मैं अकेले होती हूं?
मेहमानो के आने पर तो खिलखिला उठते हैं,
यह दिखावा नही तो और क्या है,
साफ़ दर्पण नही तो गंदा चरित्र है क्या?
जब भी लोग पूछते हैं,सोचती हूं मैं
कभी कभी सोचती हूं,क्यों मैं इतना सोचती हूं ?
रोज़ बैठे एका-एक यूं सिहरना, लहरों को बेचैन करता है
वे पूछ ही बैठे,क्या मन के भी इतने भाव होते है?
हम भी इतनी तेज़ी से करवट नही लेते,
जितना आपका विकल मन
गिरना-उठना लगा रहता है सबका
आखिर किनारा पाते ही सब शांत हो ही जाया करता है
किनारे ढूंढिए,उठिए
उठेंगी आज नही तो फिर कब?
Scheme | |
---|---|
Poetic Form | Palindrome |
Metre | 1 1 1 1 1 1 1 1 1 1 1 1 1 1 1 1 1 1 1 1 1 1 1 |
Characters | 1,866 |
Words | 169 |
Sentences | 6 |
Stanzas | 1 |
Stanza Lengths | 23 |
Lines Amount | 23 |
Letters per line (avg) | 0 |
Words per line (avg) | 7 |
Letters per stanza (avg) | 0 |
Words per stanza (avg) | 155 |
Font size:
Written on September 21, 2022
Submitted by tanyamaurya564 on September 21, 2022
Modified on March 05, 2023
- 50 sec read
- 1 View
Citation
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Style:MLAChicagoAPA
"चरित्र दर्पण" Poetry.com. STANDS4 LLC, 2024. Web. 31 Oct. 2024. <https://www.poetry.com/poem-analysis/140593/%E0%A4%9A%E0%A4%B0%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B0-%E0%A4%A6%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%AA%E0%A4%A3>.
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